क्या आपने कभी ये महसूस किया है कि आपका शरीर आपसे बातचीत करता है ? आपको संकेत देता है ? आपको संदेश भेजता है ? क्या आपने अपने शरीर से संवाद किया है ? इसकी आवाज़ सुनी है ? यदि इन सारे प्रश्नों का उत्तर “नहीं” है, तो निश्चित रूप से आपको अपने और अपने शरीर के संबंध के बारे में गंभीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है, क्योंकि शरीर से ये दूरी कई दुखदायी परिणामों का कारण बन सकती है ।
तो आइये हम ये समझने का प्रयास करें कि शरीर की भाषा क्या होती है । और शरीर से संवाद कैसे स्थापित किया जा सकता है ।
भाषा की कई पर्तें हैं । आम तौर पर हम ये मानते हैं कि शब्दों और ध्वनियों से पैदा होने वाली चीज़ ही भाषा है । लेकिन ये भाषा की सबसे ऊपरी, सतही पर्त है । इसके अतिरिक्त चार और पर्तें होती हैं । दूसरे नंबर की पर्त है संकेतों की भाषा । तीसरी शारीरिक मुद्राओं और भाव भंगिमाओं की भाषा । चौथी संवेगों की भाषा । और पाँचवी, जो गहनतम है, वह है मौन की भाषा ।
अब हम एक-एक करके इनको समझने का प्रयास करतें हैं । सबसे ऊपरी पर्त है शब्दों और ध्वनियों से पैदा होने वाली भाषा । इससे हम भलीभाँति परिचित हैं । हम से हर व्यक्ति कोई-न-कोई भाषा बोलता है । कोई हिन्दी, कोई इंग्लिश, कोई पंजाबी । इन सारी भाषाओं के अपने-अपने शब्दकोश हैं, अपनी व्याकरण हैं, अपनी ध्वनियाँ हैं । पहली प्रकार की भाषा को ग्रहण करने के लिए कान काफी होते हैं । यदि हम पढ़ते हैं तभी हमें दृष्टि की आवश्यकता होती है ।
दूसरे नंबर पर संकेतों की भाषा आती है । जैसे कि ट्रेफिक लाइट, उसमें तीन रंग होते हैं: हरा, पीला, लाल । इन तीनों रंगों के अपने अलग-अलग अर्थ होते हैं । वैसे ही ज़ेबरा क्रॉसिंग का अपना अर्थ है । विभिन्न देश, संस्थाएँ, राजनीतिक दल, इत्यादि के अपने-अपने विशेष संकेत, राष्ट्रीय ध्वज, चुनाव चिन्ह होते हैं जिनके अपने विशेष अर्थ होते हैं ।
तीसरे नंबर पर आती है भाव-भंगिमाओं की भाषा, शारीरिक मुद्राओं की भाषा । अब जैसे-जैसे हम गहनतर जाते हैं: शब्दों और ध्वनियों से संकेतों में, फिर मुद्राओं में, तो भाषा सूक्ष्मतर होती जाती है, और इसे समझने के लिए हमें शुद्धतर द्रष्टि की आवश्यकता होती है । जिसको हम बॉडी लैंगवेज कहते है । इसको हम कुछ-कुछ समझ सकते हैं । जैसे कि हम देखें कि कोई व्यक्ति जम्हाई ले रहा है, तो ये पता लगता है कि वह नीरस हो गया है । साथ ही जम्हाई लेना इस बात का भी संकेत है कि उसके शरीर में ऑक्सिजन की कमी है । यदि कोई व्यक्ति झुक के बैठा हुआ है, बोझिल सा, तो ये भान होता है कि वह थका हुआ है । यदि इसकी गहराई में जाएँ तो हम ये पाएँगे कि विभिन्न प्रकार की भाव-भंगिमाओं से शरीर कुछ कह रहा होता है । कभी किसी क्रोधित व्यक्ति को देखिये तो क्रोध की जलन उसकी आँखों में भी दिखाई देगी, उसके पूरे शरीर में लक्षित होगी । कोई व्यक्ति निराश हो उसकी चाल से पता चल जाता है उसकी निराशा का । इसीलिए कहते हैं कि Body speaks louder than words. हम शब्दों से झूठ बोल सकते हैं लेकिन शरीर से झूठ नहीं बोल सकते क्योंकि शरीर हमारे नियंत्रण में होता ही नहीं है । तो ये है मुद्राओं की भाषा ।
हम देख रहे हैं कि जैसे-जैसे हम गहनतर जाएँगे, हमें चाहिए होगी शुद्धतर दृष्टि । जैसे हम ध्वनि और शब्दों से आगे बढ़ते हैं संकेतो की ओर तो हमें आँखों से सुनने की कला सीखनी होगी । आगे, शारीरिक मुद्राओं को सुनने के लिए शुद्ध आँखों के साथ-साथ तीक्ष्ण अवलोकन की आवश्यकता होगी । कारण ये है कि ये भाषा अधिकतर अप्रत्यक्ष होती है । इसमें चीज़ें हमेशा सीधे-सीधे नहीं कही जातीं । और कभी-कभी एक भंगिमा के कई अर्थ हो सकते हैं । उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति शांत है, तो इसका अर्थ ये भी हो सकता कि वह उदास है या फिर वो अंदर के मौन में डूबा है । आम तौर पर हम शांति का अर्थ उदासी से ही लेते हैं । जब कभी मैं गहन मौन में होता हूँ तब लोगों को लगता है कि मैं किसी बात को लेकर परेशान हूँ । वो मेरे शुभचिंतक हैं । मेरी मदद करना चाहते हैं । लेकिन वो ये समझ नहीं पाते कि मैं मौन के आनंद में हूँ । एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा, “आप इतने शांत क्यों हैं ? कोई समस्या है क्या ?” मैंने कहा, “नहीं, कोई समस्या नहीं है । मैं मौन हूँ ।” तो उन्होंने कहा, “वही तो मैं पूछ रहा हूँ कोई समस्या है क्या ?” इसीलिए अवलोकन चाहिए ।
आगे हम संवेगों की भाषा में प्रवेश करते हैं । यहाँ आकर चीज़े और सूक्ष्म हो जाती हैं क्योंकि हम concrete से abstract, यानि मूर्त से अमूर्त की तरफ़ बढ़ रहे हैं । यानि ध्वनि से मौन की तरफ़ बढ़ रहे हैं । साकार से निराकार की ओर बढ़ रहे हैं । संवेगों की, vibrations की, अपनी भाषा है । अपने देखा होगा कुछ विशेष स्थानों पर आपको बड़ी शांति महसूस होती है और कुछ स्थानों पर आप उद्विग्न हो जाते हैं । अचानक आपको लगता है कि कुछ नकारात्मक-सा है जो आपको पकड़ रहा है चारों तरफ़ से । कुछ स्थानों पर आप विश्राम में पहुँच जाते हैं । ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि वो स्थान अपने संवेगों के माध्यम से आपकी ओर कोई सन्देश प्रेषित कर रहा है, आपको कुछ पहुँचा रहा है और वो सन्देश आपका शरीर पकड़ रहा है । और जितना संवेदनशील आपका शरीर होगा, जितना ग्रहणशील होगा, जितना खुला होगा, जितने आप ओपन होंगे, उतना आप इन संवेगों को पकड़ पाएँगे । संवेगों की अपनी भाषा होती है । इसका हम सभी ने अनुभव किया होगा । कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ व्यक्तियों के साथ बैठकर आपको सुकून मिलता है और कुछ के साथ बैठकर आप परेशान से हो जाते हैं, तनावग्रस्त हो जाते हैं, चिड़चिड़े से हो जाते हैं । ये क्यों होता है ? क्योंकि हर एक व्यक्ति एक विशेष प्रकार के संवेग पैदा कर रहा होता है । और उन संवेगों से वो घिरा होता है । जो भी उसके संपर्क में आता है वो उन संवेगों से प्रभावित होता है । जो जितना खुला हुआ है, जो जितना संवेदनशील है, वो उतनी जल्दी उन संवेगों को पकड़ता है । तो ये है संवेग ।
यहाँ आकर एक बात हम स्पष्ट रूप से देख पा रहे हैं कि भाषा पर तो हमारा कुछ नियंत्रण है । हम सोचें कुछ और कहें कुछ । संभव है । की जा सकती है चालाकी थोड़ी सी । Manipulation किया जा सकता है । संकेतों तक थोडा-सा नियंत्रण कम हुआ । अब भाव-भंगिमाये और भी आपके नियंत्रण से बाहर की चीज़े हो गई; लेकिन फिर भी कुछ ज़बरदस्ती की जा सकती है शरीर के साथ, जो की अभिनेता होते हैं वो करते हैं । तो अभिनय किया जा सकता है । जब हम संवेगों तक पहुँचते हैं तो फिर नियंत्रण बिलकुल ही छूटता जाता है क्योंकि आपको बिलकुल कुछ भी नहीं पता होता है कि वो संवेग आपके शरीर से निकल भी रहे हैं । क्योंकि आप जिस अवस्था में हो, आपका अंतस जिस प्रकार के भाव से भरा हुआ है वो भाव अपनी एक ऊर्जा पैदा करता है, अपनी एक तरंग पैदा करता है । वो तरंग चारों ओर फैलती है । और उस तरंग के संपर्क में आने वाले लोग उससे प्रभावित होते ही हैं । अब इसका कारण हम नहीं समझ पाते कि कुछ लोगों के साथ बैठकर, उनके सानिध्य में हमें ऊर्जा प्राप्त होती है, हम उत्साहित महसूस करते हैं और कुछ के साथ बड़े हतोत्साहित से महसूस करते हैं । ये सारा संवेगों के कारण होता है ।
अंततः जो पाँचवी पर्त है, वो मौन की पर्त है, मौन की भाषा है । ये गहनतम है । ये हमारे अस्तित्व के केंद्र से आती है । जो ये मौन की भाषा जान लेता है उसे और किसी प्रकार के संवाद की कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि उसने गहनतम को जान लिया । मौन की भाषा अंतिम पर्त है । जो भी इस भाषा को जान लेता है वो अन्य सारी परतों को स्वतः ही जान लेता है । इस भाषा का जानकार एक अच्छा श्रोता होता है । सम्यक श्रोता । वो दूसरों को सही समझ-बूझ से सुनता है क्योंकि वह जागा होता है । वह अस्तित्व को भी सुन पाता है । साथ ही उसके मौन के माध्यम से दूसरे भी अस्तित्व से जुड़ पाते हैं । मौन की भाषा सीखने का एकमात्र उपाय ध्यान है ।
पहली से लेकर आख़िरी पर्त तक हमने देखा कैसे हम मूर्त से अमूर्त की ओर जाते हैं । कैसे ध्वनि से मौन की ओर जाते हैं । कैसे शब्दों से निशब्द की तरफ़ जाते हैं । अब यदि हम शरीर की बात करें, तो शरीर से जो संवाद होता है, वो निश्चित रूप से शब्दों से तो नहीं होता । शरीर हमसे शब्दों में तो बात नहीं कर सकता । या तो वो उन संकेतों से बात करेगा या फिर भाव भंगिमाओं से बात करेगा । तो शरीर से संवाद करने के लिए सबसे ज़रूरी है कि हम शरीर के संकेतों को पढ़ना सीखें । जैसे कि हम शुरू करते हैं हमारी खान-पान की आदतों से । हमारी भूख का एक बहुत बड़ा हिस्सा मानसिक है । हमारी भूख मानसिक ज़्यादा है शारीरिक बहुत कम है । जब आप अपनी पसंद का भोजन कर रहे होते हैं तो आप अति में खाते हैं भोजन । तो एक निश्चित मात्रा के बाद यदि आप सचेत हैं तो आप देखेंगे कि शरीर आपको ये बताना शुरू कर देता है कि, “अब हो गया, अब रुक जाओ ।” निश्चित रूप से संकेत आने लगता है । लेकिन चूँकि हम बेहोश होते हैं तो हम ये संकेत सुन नहीं पाते । यदि आप बहुत ज़्यादा खाना खा लेते हैं तो आपको मितली आने लगती है, डकार आने लगती है । शरीर ये कह रहा है कि भोजन अंदर नहीं समा सकता । शरीर ये कह रहा है लगातार । और आश्चर्य की बात है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक पूरी दुनिया को जंक फ़ूड से बचाने के लिए बड़ी-बड़ी शोध कर रहे हैं । जंक फ़ूड से होने वाले नुक़सान के बारे में लोगो को आगाह कर रहे हैं । लेकिन जंक फ़ूड के पूरे साहित्य में ये बात शायद ही कहीं देखने को मिले कि वैज्ञानिक इस प्रकार की भाषा की बात कर रहे हैं कि शरीर से संवाद कैसे स्थापित करें और शरीर की सुनें । जो शरीर की सुन सकेगा उसे किसी आहार विशेषज्ञ की राय लेने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । उसका शरीर ही उसको गाइड कर रहा होता है । उसका शरीर ही भोजन की मात्रा का निर्धारण कर रहा होता है । तो ये साधारण सी दिखने वाली चीज़े बड़ी अर्थपूर्ण हैं ।
अब टी वी की बात करें । जब हम बहुत लम्बे समय तक टी वी देखते रहते हैं तो आँखें दर्द देने लगती हैं । अब ये आँखों का दर्द देना फिर इस बात का सूचक है कि, “अब बंद करो, बहुत देख ली टी वी ।” लेकिन फिर भी हम देखे ही जाते हैं, देखे ही जाते हैं । मतलब हम शरीर की बात नहीं सुन रहे हैं ।
कभी आपने एक चीज़ और अजीब-सी देखी होगी कि हमारे शरीर का एक निश्चित समय होता है सोने का और यदि वो समय निकल जाये तो जैसे नींद मर जाती है । अब ये बड़ी अदभुत बात है ! होना तो ये चाहिए कि जितना सोने के समय से हम दूर जाते जाएँ उतनी नींद गहरानी चाहिए । लेकिन होता है उल्टा । नींद ख़त्म हो जाती है । उसका नुक़सान ही होता है । थकान तो रहती है पर नींद भी चली जाती है । तो जो नींद से थकान मिट सकती थी अब वो मिट भी नहीं पायेगी तो और थकान आयेगी । अब देखिये, शरीर ने तो आपको संकेत दे दिया था कि, “अब समय हो गया, अब सोइये ।” हमने नहीं सुना ।
यह जो भाषा है शरीर की, ये जो संकेत हैं यही सुनने से हम अपने शरीर के साथ मित्रता कर सकते हैं । नहीं तो हम तो शरीर के शत्रु हैं । हम इसको जितना सजा-संवार लें, लेकिन जो शरीर को सुन ही नहीं सकता, जो शरीर के पास ही नहीं है वो शरीर को प्रेम कैसे करेगा ? और ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सिगरेट के पैकेट पर लिखा होता है कि सिगरेट पीना स्वास्थय के लिए हानिकारक है, यहाँ तक की जानलेवा है; फिर भी लोग पिए ही जाते हैं, शराब पिए ही जाते हैं । वो तो शब्दों की भाषा तक नहीं समझते, वो कभी संवेगों की भाषा क्या समझेंगे ? और जो ये भाषा नहीं समझेगा वो अपना नुक़सान करेगा ही । इस नुक़सान से बचने के लिए हम अपनी इच्छाओं का दमन करने लगते हैं । जैसे, हमें भूख नहीं लगी है, बस कोई स्वादिष्ट व्यंजन देख कर हम ललचा जाएँ । अब हम संयम के नाम पर अपने साथ ज़बरदस्ती करने लगते हैं । भोजन की इच्छा को दबाते हैं । ये अतियों पर जीना है । कभी अति भोजन, कभी अति दमन । हमें संयम सीखना होगा । संतुलन सीखना होगा ।
संतुलन आये कहाँ से ? संतुलन आयेगा शांत होने से । जो व्यक्ति जितना शांत होगा, जो व्यक्ति जितना सचेत होगा, वो देख पायेगा कि शरीर अपनी सीमा जानता है, शरीर अपनी आवश्यकताएँ जानता है, भली-भाँति जानता है । और वो हमे संकेत दे सकता है । यदि हम उन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें तो हम एक स्वस्थ जीवन जी सकते हैं ।
अतः, शरीर से संवाद के लिए : आवश्यकता है शुद्ध दृष्टि की ताकि हम संकेतों को समझ पाएँ । आवश्यकता है तीक्ष्ण अवलोकन की ताकि हम भाव- भंगिमाओं को, शरीर की सूक्ष्म मुद्राओं को समझ पाएँ । आवश्यकता है शांत होने की ताकि हम संवेगों को सुन पाएँ । और अंततः आवश्यकता है ध्यान की ताकि हम उस मौन की भाषा को समझ पाएँ ।